मीरा के पद – भक्ति रस से भरपूर काव्य संग्रह
मीरा बाई के पदों में श्रीकृष्ण के प्रति भक्ति का एक ऐसा अलौकिक और अनुपम स्वरूप देखने को मिलता है, यह भक्ति परंपरा में उन्हें एक अद्वितीय और सम्मानित स्थान प्रदान करता है। उन्होंने जिस भावपूर्ण प्रेम और निष्कलंक भक्ति को अभिव्यक्ति दी, वह अपने आप में अनूठी है। मीरा ने अपने जीवन को श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित कर दिया था — न जाति की सीमाएं उन्हें रोक सकीं, न समाज की बंधनें। उन्होंने सामाजिक रुढ़ियों और वर्ण व्यवस्था से ऊपर उठकर, केवल ईश्वर-प्रेम को ही अपना मार्ग बना लिया।
मीरा की भक्ति में भक्त और भगवान के बीच का संबंध केवल आराधना तक सीमित नहीं रहता, वह आत्मा और परमात्मा के मिलन का प्रतीक बन जाता है। उनके भजन और कीर्तन वृंदावन की गलियों से होते हुए द्वारका तक पहुँचते हैं, जहाँ उनका अस्तित्व श्रीकृष्ण में विलीन हो जाता है। यह विलय केवल शारीरिक नहीं, बल्कि आत्मिक है — जैसे आत्मा ने अपने परम लक्ष्य को पा लिया हो। इस प्रकार मीराबाई का जीवन न केवल एक भक्त के रूप में सफल होता है, बल्कि वह भक्ति और प्रेम की पराकाष्ठा का जीवंत उदाहरण बन जाती हैं।
आइये मीराबाई के महत्वपर्ण पद को समझने का प्रयास करते है।
मीरा के पद-1
‘हरि आप हरो जनरी भीर ,
द्रोपदी री लाज राखी , आप बढ़ायो चीर ।
भगत कारण रूप नरहरि , धरयो आप सरीर ।।
बूढ़तो गजराज राख्यो काटी कुञ्जर पीर ‘।
दासी मीरा लाल गिरधर हरो म्हारी भीर ।।’
अर्थ : कवियित्री मीराबाई श्रीकृष्ण के प्रति अपने भक्तिपूर्ण प्रेम को व्यक्त करते हुए कहती हैं कि श्रीकृष्ण अपने भक्तों के सभी कष्टों को हरने वाले हैं। जैसे उन्होंने महाभारत में द्रौपदी की लाज की रक्षा की थी, उस समय वे उसकी साड़ी को निरंतर बढ़ाते गए और उसे अपमान से बचाया। जिस प्रकार उन्होंने अपने परम भक्त प्रह्लाद की रक्षा के लिए नरसिंह अवतार धारण कर हिरण्यकशिपु का अंत किया, और जैसे उन्होंने ऐरावत हाथी को मगरमच्छ के चंगुल से मुक्त किया — उसी प्रकार, हे प्रभु! आप अपनी इस दासी के दुखों का भी अंत कीजिए।
मीरा के पद-2
‘स्याम म्हाने चाकर राखो जी ,
गिरधारी लाला म्हाने चाकर रखोजी ।
चाकर रहस्यूँ बाग लगास्यूँ नित उठ दरसन पास्यूँ ,
बिन्दरावन री कुंज गली में, गोविंद लीला गास्यूँ ।
चाकरी में दरसन पास्यूँ सुमरन पास्यूँ खरची ,
भाव भगती जागीरी पास्यूँ, तीन बाता सरसी ।
मोर मुकुट पीताम्बर सोहे, गल वैजन्ती माला ,
बिन्दरावन में धेनु चरावे, मोहन मुरली वाला ।
ऊँचा ऊँचा महल बनावँ बिच बिच राखूं बारी ,
सांवरिया रा दरसण पास्यूँ, पहर कुसुम्बी साड़ी ।
आधी रात प्रभु दरसण, दीज्यो जमनाजी रे तीरा ,
मीराँ रा प्रभु गिरधर नागर, हिवड़ो घणो अधीरा ।’
अर्थ : श्रीकृष्ण के प्रति अपनी गहन भक्ति और समर्पण की भावना प्रकट करते हुए मीराबाई कहती हैं, “हे गिरधारी लाल! मुझे अपना सेवक बना लो, मुझे सदा अपने निकट ही रखो। मैं तुम्हारा सेवक बनकर बगीचा लगाऊंगी ताकि प्रतिदिन प्रातःकाल तुम्हारे दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हो सके।” वह आगे कहती हैं कि वृंदावन की संकरी गलियों में वे अपने प्रभु श्रीकृष्ण की लीलाओं का गुणगान करती रहूँगी।
मीराबाई के अनुसार, प्रभु की सेवा में लगकर उन्हें तीन महान लाभ मिलते हैं: एक, उन्हें निरंतर श्रीकृष्ण के दर्शन प्राप्त होते हैं; दो, प्रिय की विरह वेदना नहीं सताती; और तीन, उनके हृदय में भक्ति का साम्राज्य निरंतर बढ़ता जाता है।
श्रीकृष्ण के रूप सौंदर्य का वर्णन करते हुए मीराबाई कहती हैं कि उन्होंने पीतांबर (पीले वस्त्र) धारण किए हैं, उनके सिर पर मोरपंखों से सजा मुकुट है, और उनके गले में वैजयंती माला शोभायमान है। जब वे वृंदावन में गायें चराते हुए बांसुरी बजाते हैं, तो सबका मन मोह लेते है।
इसके पश्चात मीराबाई के भाव और अधिक सघन हो जाते हैं। वे कहती हैं कि वे बगीचे के मध्य भव्य महल बनवाएँगी और कुसुम्बी रंग की साड़ी पहनकर अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के दर्शन करेंगी। अंत में, वे विरह और व्याकुलता से भर जाती हैं और पुकार उठती हैं, “हे गिरधारी स्वामी! मेरा मन तुम्हारे दर्शन के लिए व्याकुल हो रहा है। यह प्रतीक्षा सुबह तक नहीं कर सकता, कृपया मुझे आधी रात को ही यमुना तट पर दर्शन दो।”
मीरा के पद-3
‘मेरे तो गिरधर गोपाल ,दुसरो न कोई ।
जा के सिर मोर मुकुट ,मेरो पति सोई ,
छांड़ि दयी कुल की कानि, कहा करिहै कोई ?
संतन द्विग बैठि-बैठि ,लोक-लाज खोयी,
अंसुवन जल सींचि- सींचि ,प्रेम- बलि बोयी ।
अब तो बेलि फलि गायी ,आंणद -फल होयी।
दूध की मथनियाँ बड़े प्रेम से बिलायी,
दधि मथि घृत काढ़ि लियों ,डारि दयी छोयी।
भगत देखि राजी हुये, जगत देखि रोयी,
दासि मीरा लाल गिरधर तारो अब मोही ।’
अर्थ : मीराबाई कहती हैं कि मेरे लिए मेरे गिरधर गोपाल, अर्थात श्रीकृष्ण ही सर्वस्व हैं — उनके अलावा मेरा कोई नहीं। मेरा किसी और से कोई संबंध नहीं है। जिसने अपने सिर पर मोरपंख का मुकुट धारण किया है, वही मेरे पति हैं। उनके प्रेम में मैं सब कुछ छोड़ चुकी हूं, यहाँ तक कि कुल की मर्यादा और समाज की मान्यताओं को भी त्याग दिया है। अब भला दुनिया मेरा क्या बिगाड़ सकती है?
मैं संतो की संगति में रहकर भजन करती हूं, लोक-लाज की परवाह अब नहीं रही। मैंने अपने आँसुओं के जल से प्रेम की बेल को सींच-सींच कर उगाया है, और अब यह बेल चारों ओर फैल गई है। इस पर आनंद के फल लग चुके हैं, जो मेरे जीवन को मधुरता से भर देते हैं।
आगे मीराबाई कहती हैं कि मैंने श्रीकृष्ण के प्रेमरूपी दूध को भक्ति की मथानी से प्रेमपूर्वक मथा है। इस मंथन से मैंने दही से सार तत्व — यानी घी — निकाल लिया है और छाछ रूपी निष्प्राण पदार्थों को त्याग दिया है। वे ईश्वर के भक्तों को देखकर आनंदित होती हैं, परंतु संसार में मोह-माया में फंसे लोगों को देखकर उनका हृदय दुःखी हो उठता है।
अंत में, वे स्वयं को गिरधर गोपाल की दासी घोषित करते हुए अपने जीवन के उद्धार हेतु उनसे विनम्र प्रार्थना करती हैं।
मीरा के पद-4
‘पग घुंगरू बाँधि मीरा नाची,
मैं तो मेरे नारायण सूं, आपहि हो गयी साची ।
लोग कहँ ,मीरा भई बावरी, न्यात कहै कुल -नासी ,
विस का प्याला राणी भेज्या, पवित मीरा हांसी ,
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, सहज मील अविनासी ।’
अर्थ : मीराबाई कृष्ण प्रेम में इतनी दीवानी हो गई थीं कि उन्होंने अपने पैरों में घुँघरू बाँध लिए और भगवान श्रीकृष्ण के सम्मुख नृत्य करने लगीं। उनके इस व्यवहार को देखकर लोग उन्हें पागल कहने लगे। परिवार और समाज के लोग उन पर आरोप लगाने लगे कि वे कुल की प्रतिष्ठा और मर्यादा को नष्ट कर रही हैं। वे याद दिलाते कि मीरा एक विवाहिता स्त्री हैं और उनका यह आचरण पारिवारिक और सामाजिक मान्यताओं के विरुद्ध है।
श्रीकृष्ण के प्रति उनके इस अनन्य प्रेम को देखकर राणा ने उन्हें समाप्त करने का प्रयास किया और विष का प्याला भिजवाया। किंतु मीरा ने वह विष भी मुस्कुराते हुए पी लिया। उनके लिए यह केवल एक परीक्षा थी, क्योंकि वे जानती थीं कि उनका आराध्य श्रीकृष्ण — जो सहज, स्वाभाविक और करुणामय हैं — उन्हें हर संकट से बचानेवाले है । मीराबाई के अनुसार, उन्हें श्रीकृष्ण जैसे सच्चे और सर्वथा रक्षक भगवान सहज रूप में प्राप्त हुए हैं, जिनका सान्निध्य ही उनका सबसे बड़ा बल है।
मीरा के पद-5
‘पायों जी मैने राम रतन धन पायो ।
जनम जनम की पूंजी पाई जग में सभी खोवायो ,
खरचै न खूटै चोर न लूटै दिन दिन बढ़त सवायो ।
सैट की नाव खेवटिया सतगुरु भवसागर तर आयो ,
मीरा के प्रभु गिरधर नागर हरष – हरष जस गायों ।’
अर्थ : मीरा ने रामनाम का एक अद्भुत और अलौकिक धन प्राप्त किया है, जो उन्हें उनके सतगुरु रविदास ने दिया है। इस एक नाम को पाने से उन्होंने अनेक जन्मों का पुण्य और सभी का प्रेम अर्जित कर लिया। यह धन न तो कभी कम होता है और न ही चोरी हो सकता है; बल्कि दिन-रात निरंतर बढ़ता ही रहता है। यह ऐसा अमूल्य धन है जो मोक्ष के मार्ग की ओर ले जाता है। श्रीकृष्ण के नाम का स्मरण पाकर मीराबाई ने बड़े आनंद से उनका गुणगान किया है।.